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दिन पहाड़ से
चुप्पी ओढ़े
रात खड़ी है, सन्नाटे दिन बुनता
हुआ यंत्रवत यहाँ आदमी नहीं किसी की सुनता
सबके पास समय का टोटा, किससे
अपना सुख दुख बाँटें
बात-बात में
टकराहट है कभी नहीं दिल मिलते
ताले जड़े हुए होठों पर हाँ ना में सर हिलते
पीढ़ीगत इस अंतराल की खाई को
अब कैसे पाटे!
पीर बदलते
हाल देखकर पढ़ने लगी पहाड़े
तोड़ रहा दम ढाई आखर उगने लगे अखाड़े
मन में उगे कुहासे गहरे इन बातों से
कैसे छाँटे!
२५ फरवरी
२०१२
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