ज़िन्दगी की साँझ ज्यों ज्यों ढ़ल रही है
एक बस तेरी कमी ही खल रही है।
हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूँग छाती पर नदी की दल रही है।
खून परवाने का उसके मुँह लगा है,
शाम होते ही शमां फिर जल रही है।
चाल अपनी ज़िन्दगी तो चल चुकी है,
मौत अब तो चाल अपनी चल रही है।
चार पहियों पर सदा चलता था उसकी,
चार कन्धों पर सवारी चल रही है।
वो 'शरद' रोटी भी तेरी छीन लेंगे,
दाल अवसरवादियों की गल रही है।
११ जनवरी २०१०