अनुभूति में
शरद तैलंग की रचनाएँ
नई गज़लें
इतना ही अहसास
कभी जागीर
बदलेगी
ज़िंदगी की
साँझ
मुक्तक में
तीन
मुक्तक
कविताओं में
जाने क्यों
नींद
फूलों का दर्द
लाचारी
लेखक ऐसे ही नहीं बनता है कोई
सिलवटें
अंजुमन में
अपनी करनी
अपनी बातों में
आपका दिल
आप तो बस
आबरू वो इस तरह
इस ज़मीं पर
उस शख्स की बातों का
घर की कुछ चीज़ें पुरानी
जब दिलों में
जो अलमारी में
तलवारें
दिल के छालों
पत्थरों का अहसान
पुराने आईने में
फना जब भी
मेरा साया मुझे
मंज़ूर न था
यारी जो समंदर को
लड़कपन के दिन
समंदर की निशानी
गीतों में
मनवीणा के तार बजे
मेरी ओर निहारो
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ
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सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ फिर से उतरने लग गया दिन,
और संध्या के गले मिलकर बिछुड़ने लग गया दिन।
लौटने लगे पंछी सब अपने नीड़ों में,
चंचलता व्याप्त हुई सहसा कुछ कीड़ों में,
पंख चंदा के न जाने क्यूँ कतरने लग गया दिन।
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ फिर से उतरने लग गया दिन।
तम ने दिखलाए फिर अपने कुछ रंग ढंग,
दिन हो भयभीत चला सूरज के संग संग,
पर्वत की ओट लिये फिर सिमटने लग गया दिन।
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ फिर से उतरने लग गया दिन।
रजनी को राज्य तनिक देर दे गया जो दिन,
रवि के आते ही पल में वो जायेगा छिन,
सोच कर गुमसुम निशा थी फिर सँवरने लग गया दिन।
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ फिर से उतरने लग गया दिन। |