जो अलमारी में
जो अलमारी में हम अख़बार के नीचे छुपाते हैं
वही कुछ चंद पैसे मुश्किलों में काम आते हैं।
कभी आँखों से अश्कों का खज़ाना कम नहीं होता
तभी तो हर खुशी हर ग़म में हम उसको लुटाते हैं।
मैं सड़कों पर गुज़रते वक़्त आँखें मूँद लेता हूँ
जो फुटपाथों पे हैं वो मुल्क की हालत बताते है।
दुआएँ दी हैं चोरों को हमेशा दो किवाड़ों ने
कि जिनके डर से ही सब उनको आपस में मिलाते हैं।
मैं अपने गाँव से जब भी शहर की ओर चलता हूँ
तो खेतों में खड़े पौधे इशारों से बुलाते हैं।
ख़ुदा हर घर में रहता है वो हम से प्यार करता है
बस इतना फ़र्क है हम उसको माँ कहकर बुलाते हैं।
'शरद' ग़ज़लों में जब भी मुल्क की तारीफ़ करता है
तो भूखे और नंगे लोग सुन कर मुस्कराते हैं।
16 मई 2007 |