अनुभूति में
शरद तैलंग की रचनाएँ
नई गज़लें
इतना ही अहसास
कभी जागीर
बदलेगी
ज़िंदगी की
साँझ
मुक्तक में
तीन
मुक्तक
कविताओं में
जाने क्यों
नींद
फूलों का दर्द
लाचारी
लेखक ऐसे ही नहीं बनता है कोई
सिलवटें
अंजुमन में
अपनी करनी
अपनी बातों में
आपका दिल
आप तो बस
आबरू वो इस तरह
इस ज़मीं पर
उस शख्स की बातों का
घर की कुछ चीज़ें पुरानी
जब दिलों में
जो अलमारी में
तलवारें
दिल के छालों
पत्थरों का अहसान
पुराने आईने में
फना जब भी
मेरा साया मुझे
मंज़ूर न था
यारी जो समंदर को
लड़कपन के दिन
समंदर की निशानी
गीतों में
मनवीणा के तार बजे
मेरी ओर निहारो
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ
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लाचारी
मेरे शरीर का बोझ
अपने कंधों पर लाद कर
चलने में लाचार हैं
मेरे पैर।
काश!
कोई ऐसे कंधे मिलें,
लाद कर चल सकें जो
मेरे शरीर का बोझ
मेरे पैरों के साथ साथ।
लगता है ऐसे कंधे
शायद उसी दिन मिलें
आवश्यकता नहीं होगी जब
मेरे शरीर को
किसी पर भी
बोझ बनने की।
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