अनुभूति में
शरद तैलंग की रचनाएँ
नई गज़लें
इतना ही अहसास
कभी जागीर
बदलेगी
ज़िंदगी की
साँझ
मुक्तक में
तीन
मुक्तक
कविताओं में
जाने क्यों
नींद
फूलों का दर्द
लाचारी
लेखक ऐसे ही नहीं बनता है कोई
सिलवटें
अंजुमन में
अपनी करनी
अपनी बातों में
आपका दिल
आप तो बस
आबरू वो इस तरह
इस ज़मीं पर
उस शख्स की बातों का
घर की कुछ चीज़ें पुरानी
जब दिलों में
जो अलमारी में
तलवारें
दिल के छालों
पत्थरों का अहसान
पुराने आईने में
फना जब भी
मेरा साया मुझे
मंज़ूर न था
यारी जो समंदर को
लड़कपन के दिन
समंदर की निशानी
गीतों में
मनवीणा के तार बजे
मेरी ओर निहारो
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ
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फूलों का दर्द
मिला जो न्यौता ऋतु बसंत का सज कर निकले फूल सभी
पल भर का जीवन है उनका क्षणिक गए थे भूल सभी।
पत्तों ने जब फूलों को देखा तो मुंह को बिचकाया
और कहा "तुम सब के होते हम सब पर संकट छाया।
मानव तो सुंदरता की ही करता रहा सदा पूजा
इसके आगे उस प्राणी को और न कुछ भाए दूजा।
आज तुम्हारे आगे हम पत्तों का कोई मान नहीं
सभी चाहते है तुमको हम पर तो किसी का ध्यान नहीं।
इसीलिए बतलाओ तुम इस मौसम में क्यों आते हो
अपने लिए प्यार का तोहफ़ा नफ़रत हमको लाते हो"।
फूलों ने पत्तों का ऐसा रुख़ देखा तो समझाया
सुंदरता का कैसा मोल चुकाना पड़ता बतलाया।
कहा "तुम्हारी बातें सच हैं जिसका कोई तर्क नहीं
लेकिन हम फूलों में और गणिकाओं में कुछ फ़र्क नहीं।
बागों में बाज़ारों में भी हमें सजाया जाता है
उन जैसा ही हमको सबके आगे लाया जाता है।
कुछ सिक्कों के बदले में हमको ले जाया जाता है
नेताओं धनवानों के सम्मुख पहुँचाया जाता है।
कभी-कभी तो रात-रात भर घुट-घुट मरना पड़ता है
हमको उनकी बाहों में और गले लिपटना पड़ता है।
क्षण भर को तो लोग हमें अपने घर में ले जाते हैं
काम निकल जाने पर फिर वे सड़कों पर फिकवाते हैं।
कम से कम अपनों के संग तुम खुशी-खुशी सब हो रहते
सुंदरता अभिशाप हमारे लिए जिसे हम सब सहते"।
सुनकर बातें फूलों की पत्तों का भी तब मन डोला
फूलों का ये दर्द समझ कर उनसे कुछ न गया बोला।
9 मार्च 2005
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