प्रतिध्वनि
मेरे शब्दों को छुआ है
तुमने
उँगलियों के पोरों से
हरेक हाशिये को
तब तक, जब तक
वो रेशे-रेशे में तेरे बस न जाए
रेशमी चादर-सा चारों ओर लिपट न जाए
और तब
हवा सरसराती है
शब्द फुसफुसाते हैं
हँसते हैं कभी खिलखिलाकर
कभी धीमे-धीमे गुनगुन गुनगुन
आकुल व्याकुल, होश मदहोश
पहाड़ी वादियों में गूँजती है
ध्वनि प्रतिध्वनि
मैं आकंठ डूब जाती हूँ
मुझे पता है
क्योंकि
मैंने भी छुआ है
ऐसे ही
तुम्हारे शब्दों को
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