मौन की
भाषा
शब्द जो मेरे
अब तक मौन थे
अब चहकते हैं
नटखट बच्चे की तरह
हँसी की किलकारियाँ
भरते हैं
पर मैं नहीं जानती
तुम तक पहुँचते ही
ये शर्मीले होकर
चुप क्यों हो जाते हैं
शायद तुम ही बता पाओ
या फिर
खुद ही समझ जाओ
इस मौन की भाषा को
याद
उस नीले अंबर के तले
चीड़ के पत्तों की सरसराहट
और घुमावदार पगडंडी पर
एक चढ़ाई और
हाथों में हाथ डाले
हाँफ़ते हँसते
मैं और तुम
उस तेज सर्दी में
तुम्हारे हर सांस का जम जाना
मैं धीरे से एक-एक करके
अपने हथेलियों में
चिड़िया के नाज़ुक नर्म बच्चे
की तरह
गर्मा लेती हूँ उन्हें
और अपने होठों से लगाकर
पी जाती हूँ
बढ़िया शराब की तरह
पहले होठों और फिर
जीभ पर फिराकर
एक घूँट में निगल जाती हूँ
आज भी जब कभी
शराब की घूँट भरती हूँ
और मेरी निगाह
तुमसे टकरा जाती है
मेरी ज़ुबान पर
उस चीड़ के पत्तों की महक
तुम्हारे सांसों के स्वाद के साथ
घुलकर, फिर ताज़ा हो जाती है।
१६ मई २००५
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