तुम नहीं हो शहर
में
(कवि मित्र अरुभ आदित्य
के लिए)
जैसे सूरज डूबने के बाद
बची रहती है रौशनी
पतझड़ में हरापन
बुरे समय में सपने
बुझी अंगीठी में ऊष्मा
तुम्हारे शब्द बचे हुए हैं
हमारे पास
बची हुई हैं तुम्हारी बातें
जिनकी चर्चा में रजनी रमण
इस तरह मशगूल होते हैं
जैसे अभी-अभी लौटे हों
तुमसे मिलकर
अपनी ग़ज़लों को सुनाते हुए
प्रदीप कांत
तुम्हारी सलाहों को सहेज रहता हैं
देवेंद्र फोन पर बताता है
कि अभी-अभी वसुधा में पढ़ी है
तुम्हारी कविताएँ
हमारे पास
तुम्हारा इतना कुछ जीवित है
फिर कैसे कोई माने कि
वर्षों से तुम नहीं हो इस शहर में।
२४ जनवरी २००६ |