कविताओं में- तुम नहीं हो शहर में कनुप्रिया ज़िन्दा रहने के लिये दुख जब पिघलता है पहाड़ी नदी की तरह पायदान पर फिर कभी फिर तान कर सोएगा फूलों को इंतज़ार है महानगर मेरे समय का फलसफा मैं और तुम वायरस स्कूटर चलाती हुई लड़कियाँ सफेद कबूतर
डूबते हुए हरसूद पर- एक दिन जब भी कोई जाता पाकिस्तान से विस्थापित फैली थी महामारी बढ़ रहा है नदी में पानी सुनसान सड़क पर संकलन में नया साल- यह सुबह तुम्हारी है
खटर प़ट ख़टर प़ट गूँज रही है पूरे गाँव में गाँव सो रहा है जुलाहा बुन रहा है
जुलाहा शताब्दियों से बुन रहा है एक दिन तैयार कर देगा गाँव भर के तन ढकने का कपड़ा फिर तानकर सोएगा जैसे युद्ध से लौटकर सोते हैं सैनिक।
२४ जनवरी २००६
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