दु:ख जब पिघलता
है
दु:खी मन पर होता है इतना बोझ
सम्भाले न सम्भले इस धरती से
हवा ले उड़ना चाहे तो
फिस्स हो जाए
और आकाश उठाने की कोशिश में
धप्प से गिर जाए धरती पर
दु:खी मन में होती है इतनी
पीड़ा
माँ का दिल भी पछाड़ खा जाए
पिता रो पड़ें फफककर
बहन छोड़ दे डोली चढ़ने के सपने
दु:खी मन में होती है इतनी
निराशा
जैसे महाप्रलय के बाद
पृथ्वी पर बचे एक मात्र जीव की निराशा
इतना विषद और त्रासद मन
जब पिघलता है
बौरायी नदी-सा उखाड़ फेंकता है
दु:खों के जंगल
गढ़ता है दु:खों के तर्क से
सुखों के सपने
मन जब पिघलता है
तब दु:ख भी पिघलता है । |