जब भी कोई जाता
जब भी कोई जाता
लम्बी यात्रा पर
घर उदास रहता
उसके लौटने तक
जब भी उठती घर से
बेटियों की डोली
वह घर की औरतों से
ज्यादा विफरकर रोता
जब भी जन्मते घर में बच्चे
गर्व से फैलकर
अपने अन्दर जगह बनाता
उनके लिए भी
उत्सवों और सुअवसरों पर
इतना प्रसन्न होता कि
उसके साथ टोले-मुहल्ले भी
प्रसन्न हो जाते
इसी घर पर
आज बरस रहे हैं हथौड़े
वह मुँह भींचे पड़ा हुआ है
न आह न कराह
चुपचाप भरभराते हुए
ढह रहा है घर
घर विस्थापित हो रहा है। |