फिर कभी
मस्जिद में
अदा करनी है नमाज़
पढ़ना है वेद मंदिरों में
पाताल लोक में उतरना है
स्वर्ग में लगानी है छलांग
साफ़ करने है
मुल्ला जी की ढाढ़ी में से तिनके
और पंडित जी की जनेऊ पर जमी मैल
आख़री बच्चे का पेट
दूध से भरना है
फ़सल पर करना है छिड़काव
कीटनाशकों का
इस जर्जराती हुई व्यवस्था के
ख़िलाफ
लिखनी है तमाम कविताएँ
फिर कभी बैठेंगे फुर्सत में
पलाश के नीचे
तुम अंगूठे से कुरेदना धरती
मैं तोडूँगा नर्म घास की फुनगियाँ। |