उड़ते हैं
हज़ारों आकाश में
उड़ते हैं हज़ारो आकाश में पंछी
ऊंची नहीं होती परवाज़ें सभी की
इस शहर का जीवन सहमा तो भला
क्यों
आतंक की आँधी उस शहर चली थी
इक डूबता बच्चा कैसे वो बचाता
उस शख्स में यारों हिम्मत की कमी थी
बरसी तो यूँ बरसी आँगन भी न
भीगा
सावन की घटा थी खुलके तो बरसती
धर्मों में बटा है संसार ये
माना
बँट पाई न लेकिन पीड़ाएँ न जहां की
पुरज़ोर हवा में गिरना ही था
उनको
ए 'प्राण' घरों की दीवारें थी कच्ची
४ सितंबर २००३
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