चेहरे पर
हों
चेहरों पर हों कुछ उजाले, सोचता
हूँ
लोग हो खुशियों के पाले, सोचता हूँ
जिस्म के काले जो होते दुख नहीं था
शख्स है पर मन के काले, सोचता हूँ
आदमी गर आदमी से प्यार करता
यूं न बहते खूं के नाले, सोचता हूँ
ढूँढ़ लेता मैं कहीं उसका ठिकाना
पांव में पड़ते न छाले, सोचता हूँ
'प्राण' दुख आए भले ही ज़िंदगी में
उम्र भर डेरा न डाले, सोचता हूँ
४ सितंबर २००३
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