एक दीप
एक अकिंचन दीप हूँ, दिनकर न समझो।।
ज्योति-तरु का एक नन्हा-सा सुमन हूँ,
वक्ष पर तम के सजा आलोक-क्षण हूँ,
नैमिषिक संगीत हूँ, अक्षर न समझो।।
मैं तिमिर-वधु का सुनहरा, शशि वदन हूँ,
घन तमा के दग्ध अन्तर की जलन हूँ,
पीर-पूरित गीत हूँ, मधुकर न समझो।।
मैं प्रतीक्षा हूँ किसी की, युगों-युगों की,
मैं परीक्षा हूँ किसी के अनुभवों की,
प्रीति हूँ पावन, अनल घर न समझो।।
देवता कहकर न पूजो रेणु कण को,
सिन्धु आभा का कहो मत ज्योति-तृण को,
पुण्य प्रहरी हूँ, तिमिर-अनुचर न समझो।।
लाज करती लाज, संयम सिर झुकाता,
पूज मुझको युग, मधुर वरदान पाता,
मिलन का शृंगार, पीड़ा-शर न समझो।।
दें भले रवि-शशि न त्रिभुवन को उजाला,
मैं करूँगा ज़िन्दगी का मुँह न काला,
हूँ अगर लघु क्या हुआ, जर्जर न समझो।।
हूँ नहीं अराध्य, बस आराधना हूँ,
ज्योति-कुल की सतत् सीमित साधना हूँ,
बिन्दु हूँ, आलोक का निर्झर न समझो।।
मत कहो भगवान, मेरे पद न पूजो,
तुम मुझे वरदान कह, तम से न जूझो,
मैं धरा का मीत लघु, अम्बर न समझो।।
दीप्ति का दर्पण, निशा-दृग-ज्योति हूँ मैं,
लघु समर्पण हूँ, प्रणय का स्रोत हूँ मैं,
शील का स्वामी, मुझे तस्कर न समझो।।
(आकाश गंगा काव्य-संग्रह से)
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