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मधुर दीपक जल रहा है
ज्योति का वरदान लेकर।
आँधियों में भी निरंतर,
नित नई मुस्कान लेकर।
दे रहा है तम चुनौती,
क्या मिटाओगे मुझे तुम!
मलिन मानव -चित्त-मन से,
धो न पाओगे मुझे तुम।
जूझता पर घोर तम से,
एक नन्हीं जान लेकर।।
दीर्घ हैं मेरी भुजाएँ,
और पग बलवान तेरे।
काँपता पर देखते ही,
नयन ज्योतिर्मान मेरे।
मैं अकेला ही लड़ूँगा,
प्रात तक निज प्रान लेकर।
मैं दिवाली का दिया हूँ,
तुम मुझे कायर न समझो।
युग-युगों से जल रहा,
'आदेश' तुम नश्वर न समझो।
दे रहा आलोक जग को
सूर्य-सा अभिमान लेकर।।
-प्रो हरिशंकर आदेश
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