चन्दन वन
कंचन का तन, कलधौती मन,
आलोकमयी चंचल चितवन।
नख से शिख तक हो सुरभित यों,
ज्यों महक रहा हो चन्दन वन।।
नयनों में नभ की निर्मलता,
नीले सागर की गहराई।
जिसमें काजल मिस सजने को,
है घनी अमावस्या आई।।
सित-रक्त-श्याम लोचन ललाम,
झरता ज्यों ज्योति-प्रपात गहन।।
मस्तक पर शोभित अस्र्ण बिन्दु,
भौहों पर अंकित तरुणाई।
है रही विराज कपोलों पर,
अरुणोदय की प्रिय अरुणाई।।
लालिमा गहन, ज्यों तपे वन्हि,
अकलंक अनूप अमल आनन।।
अधरों में संचित स्नेह-राग,
मधु छलक रहा रह-रह अपार।
ढरने को आतुर है जिनसे,
अनवरत अमिय की मधुर धार।
जिनको छू भर लेने को नित,
रहते सुर जन लालायित मन।।
(शकुन्तला महाकाव्य से - प्रमोद सर्ग)
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