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हिरण्यगर्भे! जगद-अंबिके!
मातृभूमि! जय हे!
अमरनाथ से रामेश्वर तक,
सोमनाथ से भुवनेश्वर तक।
मेघालय - बंगाल - चेन्नई,
अंदमान, गोआ-परिसर तक।
शस्य-श्यामला, प्राणदायिनी!
पुण्य भूमि! जय हे!
है पीयूष-वारि की धारा,
सूर्य-सोम ने जिसे दुलारा।
पवन प्राण देता नव पल-पल,
षड ऋतुओं ने सदा सँवारा।
रज सिंदूर अर्गजा जैसी,
देवभूमि! जय हे!
अंतरिक्ष, मेदिनी, वनस्पति,
देती जिसको शांति नित्यप्रति।
आदि- स्थान विद्या का, देता
ज्ञान विज्ञान बृहस्पति।
वेदों की अवतार मही,
ऋषि-वृंद-भूमि जय हे!
गंगा- गोदावरी- नर्मदा,
देती जीवन-दान सर्वदा।
मांधाता, विक्रमादित्य, सुर-प्रिय
अशोक की शौर्य-संपदा।
राम-कृष्ण-गौतम-गांधी की,
कर्म भूमि! जय हे!
जहाँ विविध विचार-धारायें,
जीवन को सार्थक बनाएँ।
अनेकता में ऐक्य, ऐक्य में
अनेकता का पाठ पढ़ाएँ।
एक चित्त सब एक प्राण,
आदर्श भूमि! जय हे!
अकथनीय है गौरव-गरिमा,
गा न सके कोई कवि महिमा।
कोटि-कोटि प्राणों में बसती,
तेरी रम्य रूप-छवि-प्रतिमा।
अनुपमेय, अनवद्य, अपरिमित,
धर्म-भूमि! जय हे!
पूजें आबू-विंध्य-हिमाचल,
पाँव पखारे सागर का जल।
ममता का मधु-कोष सदा
बरसाते हैं लहराते बादल।
आभामयी मुक्ति-पथ-दात्री,
पितृ-भूमि! जय हे!
है गीर्वाण धरित्री पावन,
जन-कल्याण मही मनभावन।
देती है आदेश प्रेम का,
ऋषि-निर्वाण-स्थली सुहावन।
स्वर्गादपि गरीयसी अनुपम,
जन्म भूमि! जय हे!
- प्रो. आदेश हरिशंकर
('प्रवासी की पाती भारत माता के नाम' काव्य संग्रह से)
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