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काव्यचर्चा में —
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ओ मेरे क्षितिज

एक न एक दिन तो पा लूँगी
मैं चली क्षितिज की ओर

सुबह सवेरे निकली घर से
गीत सुहाने लगे हवा के
पलकों पर बैठी नींदे थीं
मीठी लगती भोर
मैं चली क्षितिज की ओर

थोड़ी सिकती धूप चढ़ी थी
किरणें पगपग साथ चलीं थीं
नन्हीं थीं बूँदे बरखा की
नाच उठा मन मोर
मैं चली क्षितिज की ओर

साँझ सुनहरी ढलने आयी
रंग कर अम्बर को मुस्काई
तुम दिखते हो सागर से
हृदयताल मचा है शोर
मैं चली क्षितिज की ओर

रात ढली पर मैं न मानूँ
दूर हो तुम पास न जानूँ
पहुँच ही जाऊँगी तुम तक
थाम प्रीत की डोर
मैं चली क्षितिज की ओर

राम श्याम क्या नाम तुम्हारे
रिश्ते नाते कौन हमारे
नहीं जानती मैं मुक्ति क्या
या जीवन है चोर
मैं चली क्षितिज की ओर

१ जुलाई २०२३

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