दोपहर जलता गगन
अलसायी है धरती सकल
तन्हा खोये से रस्ते
कहां पायें कोई मंजिल
सूखे चेहरे पर धरा के
फैला हुआ आकाश निर्जन
जिन्दगी की आस में
बैठी रही ठिठकी पवन
धरती के साथी सभी
पेड़ पर्वत और नदी
हैं तुम्हें निहारते
तुम हो बरखा की झड़ी
निरा खामोश था आलम
सूखी हवायें नरगिसी
राग रागिनी के स्वर जैसे
बूदें मधुर झर कर गिरीं
फलक से मोतियों में ढल
टपकी हैं सासें नयी
नैनों की चाहत गुलाबी
और गुलमोहर हुयी
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