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कविता
का बीज
-आस्था
कविता कैसे
लिखी जाये? यह धारावाहिक लेख बहुत पसंद आया। उस में जो जो मन
के भाव बताये हैं, उनके द्वारा एक सामान्य व्यक्ति भी अगर
कोशिश करे तो अपनी कविता की अभिव्यक्ति कर सकता है। जरूरी नहीं
भारी–भरकम शब्द ही हों, सीदे–सादे सरल शब्दों में भी मन के भाव
लिखे जा सकते हैं कैसे और कब लिखना, उसका मार्गदर्शन आपने बहुत
अच्छे ढँग से बताया है !
एक और बात जो मेरे ध्यान में आती है, कविता लिखने के बारे में,
वह यह कि, कभी–कभी ऐसा होता है कि व्यक्ति को खुद को ही अपनी
अंदरूनी खासियतों का ध्यान या पता नहीं होता। व्यक्ति के अंदर
ही ऐसे गुण छिपे होते हैं, पर सामाजिक, मानसिक, शारीरिक
परिस्थितियां कुछ इस तरह व्यक्ति के जीवन को उलझा देती हैं कि
उसे अपने इस अमूल्य गुण का अहसास ही नहीं होने देतीं।
ऐसे में कभी कभी कोई
निमित्त बन जाता है, इस गुण को बाहर लाने में और अनायास ही उस
व्यक्ति को अहसास होता है कि अरे! अभी तक मैं कैसे अनजान था इन
सब बातों से!!
इस तरह बस एक बार छोटा सा बीज अंकुरित होता है उसके मन में! वह
बीज, जो जनम से ही उसके अन्दर था, बस किसी सींचने वाले की
जरूरत थी, जैसे ही यह बीज अंकुरित हुआ, अपने आप पौधा बढ़ने लगता
है, अब उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं होती . . . या अब उसे
खुद की पहचान हो चुकी होती है, बस फिर अपने आपके . . . मन के
भावों को शब्द मिलने लगते हैं . . . अपने आप सीधा दिल से ही
काव्यात्मक भाव आने लगते हैं . . . . एक बार बस . . . .अहसास
होने की देर है . . . फिर अपने आप उस व्यक्ति का मन काबू में
नहीं रहता, जब–जब वह कोई अच्छी, या बुरी घटना देखे, या किसी भी
संवेदना को महसूस करे . . . .
प्यार, नफरत, क्रोध, सुख, दुख,
कुदरत . . . जिसे भी देखे . . . अपने आप उसके मन में भाव आने
लगते हैं, और उसका मन उन भावों को शब्दों का रूप देने के लिए
मचल उठता है . . . और इस तरह उसके मन से अनायास ही कविता
निकलने लगती है।
ऐसी कविता जिसमें कोई बंधन नहीं होता, ना भावों का, ना शब्दों
का, ऐसी कवितायें तो बस सीधा दिल से निकलती है और पढ़ने वाले के
दिल में पहुंच जाती हैं। एक बार लिखना शुरू किया हो, उसके बाद
लिखना बंद करना उसके अपने बस की बात नहीं होती, अगर वह किसी
दबाव में आकर या किसी और कारणवश, लिखना बंद करता है तो, वह
जैसे अपने आप का गला घोंट रहा हो ऐसा उसे महसूस होगा। दम घुटने
लगेगा, सांस लेना मुश्किल सा लगेगा . . . . !! ऐसा होता है
ना??
— आस्था
सिर्फ एक
कोशिश
एक कविता बने न्यारी' धारावाहिक के लिये आभार!
जितनी भी कविताओं का वाचन मैं करती थी, करती हूँ उन्हें पढ़कर
ऐसे लिखना या कविता करना मुझे क्यों नहीं आता ऐसे खयाल आते
रहते हैं। मैं भी यही समझती आयी हूँ कि कवयित्री बनना आसान बात
नहीं लेकिन इस लेख को बार बार दोहराते हुए यह काम इतना मुश्किल
भी नहीं, प्रयास तो किया ही जा सकता है, महसूस होने लगा है।
इसे पढ़ने के बाद ही सही मायने में दिलमें आने लगा है कि
कवयित्री बनने की
ओर बढ़ने के लिये सिर्फ एक कोशिश भर की देर है। मेरे भी मन में
कुछ करने की उमंग तो थी, लिखने को दिल करता था पर शायद अवसर और
समय के साथ प्रोत्साहन और सही दिशा मिलने की देर थी। शायद यह
लेख ठीक समय पर आया और आस्था जी के शब्दों में "मेरे लेखन का
निमित्त भी बन जाए।"
यों तो जिंदगी में कितने संवेदना भरे, हंसी–मजाके, दुख–गम के
मौके आये होंगे जहाँ इन भावों को कुछ शब्दों में पिरोया जा
सकता था लेकिन नहीं हो पाया। इस लेख के इतनी 2–3 किश्तों से ही
मेरी जैसी कितनी महिलाओं
के हाथ में कलम आ गयी होंगी, कितनों को यह लेख प्रेरणास्रोत
लगा होगा!
हमेशा कविता लिखते समय मुझे शब्दों की कमी महसूस होती है,
लेकिन आसान शब्द प्रयोगों से भी तो कविता भी लिखी जा सकती है
इसपर अब यकीन होने लगा है और अमल हो सकता है। वैसे ही किस
शीर्षक से या किस विषय पर कविता लिखी जाय? इस सवाल का भी जवाब
भी मुझे काफी हद तक अभी तक की कड़ियों में ही मिल गया है, आगे
की कड़ियों में और खुलासा होता रहेगा।
आसान भाषाशैली में जिस तरह से यह प्रस्तुत किया है, वह
प्रामाणिक और सराहनीय हैं। इस मार्गदर्शन के लिए बड़ी आभारी
हूँ। अब कविता लिखने की एक गंभीर कोशिश जरूर करूंगी।
आगे की किश्तों के इन्तजार में
—संध्या
सच सादगी
और सरलता
भारतीय भाषाओं के महान
कवियों के चरणों की धूल भी नहीं हूँ मैं। एक कविता साधक हूँ और
अपने प्रयास स्नेहितों को सुनाता रहता हूँ बस। मैं तो एक ही
बार में लिखता हूँ पूरी कविता .जब मन में भाव उठें तब पूरी
लिखकर ही उठता हूँ। क्योंकि वह मनस्थिति फिर नही आती। हाँ
प्रकाशन के लिये भेजना हो तो ध्यान से पढ़-सुधार कर ही ।
मुझे लगता है कि काव्य हो या और कोई भी कला सबसे बड़ा शत्रु
अहंकार है। प्रशंसा की लालसा प्रतिभा को प्रदूषित करके ही रहती
है। उन्नति के लिये आवश्यक है ऐसे साथी जो प्रोत्साहन दें तो
सच्ची समीक्षा भी करें और किसी महान कवि जैसा लिखने का ध्येय
नकल की लत डाल ही देता है। टूटा फूटा ही सही मैं अपनी शैली में
ही लिखना चाहूँगा।
जन्म से कोई कवि नहीं होता या शायद हर एक में कहीं एक कवि छिपा
बैठा है । गहरी वेदना का अनुभव जब संवेदनशीलता को स्वर दे जाता
है तो यह प्रतिभा जागृत हो उठती है। तत्पश्चात कवि नवरसों पर,
दूसरे अनजाने लोगों की पीड़ा को भी काव्य में कह सकता है।ऐसा
मेरा मानना है क्यूंकि जाके पाँव न फटी बिवाई . .
दो बातें हैं
: भावों की सरिता और शब्दों का कौशल।
शब्दों और व्याकरण की पटुता और विचक्षण प्रयोग से प्रखर
पंडितों के साहित्य को पुरस्कार सम्मान का गर्व अवश्य प्राप्त
होता है, किंतु उनके शास्त्र वाचनालयों के खाने में ही धरे
रहते हैं।सरल सहज और संक्षेप में कहे गये प्रेम के दो बोल कबीर
के दोहे, ग़ालिब के शेर, मीरा बाई के भजन अरबो ख़रबो लोगों की न
केवल भाषा में अपितु उनकी सोच, उनकी आत्मा में बसे रहे हैं।
मैं तो उन्हे ही अपना आदर्श मानता हूँ।
प्रीत चाहे प्रेमिका से हो या परमात्मा से, इश्क चाहे किसी
नाज़नीन से हो या ख़ुदा से- निस्वार्थ, निशंक और सरल ही होता है।
कठिन तो कपट होता है. क्लिष्ट तो कुंठाएँ होती हैं। हाँ
बालगोपाल ने पर्वत उँगली पर उठाया था। मुझे पूरा विश्वास है कि
प्रेम के ढाई आखर में सृष्टि का सारा रहस्य और अपरंपार शक्ति
छिपी है तथा यह हर एक को प्राप्य भी है। शर्त बस यह है कि मानव
निंदा में भी, प्रशंसा में भी अपनी
समता बनाये रखे। श्रद्धा में सशंय ना हो,
आस्था में अहं ना हो और कविता में कठिनता न हो तब ही वह सार्थक
होती है। यह ही मेरा विनम्र निवेदन है।
— राज जैन
मन की विवशता
काव्यकला को निखारने लिये शिक्षा
और प्ररेणा से भरपूर लेख के लिए धन्यवाद्। कभी कभी स्वयं से
प्रश्न करता हूँ कि मैं कविता क्यों लिखता हूँ तो एक ही उत्तर
पाता हूँ कि मन की विवशता है। मन में भाव मचलते हैं तो जब तक
उन्हें पन्ने पर
नहीं उतार लेता चैन नहीं मिलता।
बचपन से ही ऐसा करता रहा हूँ । छपवाने का या किसी को सुनाने का
कभी भी साहस नहीं जुटा पाया। कॉलेज के दिनों में काव्यमंच पर
पहुंचा तो विदेश चला आया और फिर साहित्य–समाज से सम्बन्ध टूट
गया। परन्तु गुमनामी में लिखने का सिलसिला चलता रहा। जो भाव मन
में आया लिख दिया पर कभी भी इस कला को निखारने का प्रयास नहीं
किया।
विदेश में रहने से धीरे धीरे भाषा से भी सम्बन्ध टूटने लगा।
इंटरनेट के माध्यम से मेरा साहित्य–प्रेम फिर से जाग उठा। पहली
कविता भेजने के बाद जो प्रोत्साहन मिला तो मन को विश्वास हुआ
कि मेरा लिखा किसी और को भी अच्छा लग सकता है, और तब इस कला को
निखारने की इच्छा जागी।
मेरी कविता की भाषा सरल रही है, पहले–पहले तो गूढ़ हिन्दी के
शब्द न सूझने की विवशता से।परन्तु बाद में जान बूझ कर। मेरा
तर्क यही रहा है कि दैनिक जीवन में हम अपनी सब भावनाओं को
साधारण भाषा में व्यक्त करते हैं। तो हम कविता में क्यों नहीं
कर सकते?
अच्छे कवियों की रचनाएँ पढ़ना, उनकी शैली को समझना, किस ढंग और
किस संदर्भ में शब्दों को प्रयोग करते हैं, मै समझता हूँ कि
बहुत आवश्यक है नए कवियों के लिए। किसी की शैली अपनाने की
चेष्टा नहीं करनी चाहिए, नहीं तो कवि अपने अस्तित्व को खो देता
है। इसी अस्तित्व को व्यक्त करने के लिए तो हम लिखते हैं।
जैसा आस्था जी ने कहा कोई भाव, कोई घटना या दृष्य मन की
भावनाओं के छू जाता है, वही कविता का बीज बो जाता है। चाहे उस
विषय के बारे में चेतन मन से सोचूं या नहीं पर लगता है कि
मस्तिष्क की घिरनियाँ चलती रहती हैं। अचानक ही कुछ समय के बाद
मुँह से कविता की पहली पंक्ति निकलती है। बस यही होता है
मेरी कविता का आरम्भ।
पूरी कविता लिखने बाद उसे कुछ दिन के लिए छोड़ देता हूँ। फिर
दोबारा मैं उसे आलोचक की दृष्टि से देखता हूँ और जोड़–तोड़,
संशोधन और 'शब्द–तराशी' का काम करता हूँ।कभी कभी तो यह काम
बहुत सरल रहता है, परन्तु कुछ मेरी कविताएँ हैं, जिनके भाव और
विषय मुझे बहुत अच्छे लगते हैं पर न जाने क्यों सालों के बाद
भी उन्हें पूरा नहीं कर पाया।
कविता लिखना मेरे दैनिक जीवन में कोई बाधा नहीं डालता। मेरा
अनुभव तो यह है कि लिखना मेरे मन के उद्वेलन को शान्त करता है।
कोई घटना अच्छी नहीं लगी तो अपने मन की कुंठा पन्ने पर उतार दी
और मन–पटल फिर से स्वच्छ हो गया। यदि कुछ मन को भा गया तो लिख
दिया खुशी दुगनी हो गयी और मित्रों के साथ बाँट ली। स्वभाव से
बहुत ही संकोची हूँ, कभी भी किसी के साथ बातचीत शुरू करने में
बड़ा अटपटा महसूस करता था। जब से मेरी कविताएँ प्रकाशित होनी
शुरू हुई हैं और जब से मैंने अपने "शायरी" जालघर की रचना की
है, मैं पाता हूँ कि एक नई मित्र–मँडली बनती चली जा रही है।
सभी किसी न किसी कला से सम्बन्धित हैं और सब एक दूसरे का साथ
सहजता से अनुभव करते हैं।
अन्त में यही कहूँगा कि कविता लिखना मेरे लिए तो मानसिक विवशता
हैं, पर एक ऐसी विवशता जिसका मैं अभिनन्दन करता हूँ।
—सुमन कुमार घइ
यों हुई
शुरुआत
कवि के लिये आवश्यक गुणों
के बारे में पढ़ते हुए लगा कि मुझमें तो इनमें से कोई गुण ढंग
से नहीं पर इन लेखों से न केवल नए कवियों को मदद मिलेगी बल्कि
मेरे जैसे सदा नौसिखिया रहने वालों को भी।
मेरे लेखन का आरम्भ तो लगभग जबरन हुआ। उन दिनों जब पहले पहल
मेरा परिचय अपने भावी पति से हुआ तो वह अक्सर कवितायें लिखकर
भेजा करते थे और उसमें एक दो रिक्त पंक्तियाँ जानबूझ कर छोड
दिया करते। सम्भवतः मुझे भी एक जिद सी थी कि हर बात कह कर
बतानी पड़े तो बात का मूल्य कम हो जाया करता है फिर भी जो बातें
मैं नहीं कह पाती थी मेरे साथी ने वह सब कहलवाने का अच्छा
माध्यम खोज लिया था।
इस तरह लिखने का आरम्भ शृंगार अथवा प्रेम कविताओं से ही हुआ।
समय के साथ साथ जीवन के उतार चढ़ाव अनुभव करते हुये कम बोलने
वाले मेरे व्यक्तित्व के लिये यह मन के भावों का जोड़ तोड़
अभिव्यक्ति और तनाव मुक्ति का साधन बन गया।
हाँ खुशी दुखः या जो भी भाव प्रधान हो उसे तभी कि तभी लिख देने
से अभिव्यक्ति सहज और सरल हो जाती है। इसका यह अर्थ भी नहीं कि
मैं कोई अच्छी कवि हूँ बस जो मन आये उसे लिख कर संतुष्टि का सा
अनुभव होता है। वरना सच बात तो यह है कि जो कहना चाहा उसे वैसा
कहने में मेरे सीमित भाषा ज्ञान और लेखनी ने साथ नहीं दिया।
लिखने में एक अर्पूणता का भाव ही रहता है पर कोशिश जारी है। यह
बात इसलिये कह रही हूँ कि यदि आपको भी ऐसा लगता हो तो आप अकेले
ही इस अनुभव से नहीं गुजर रहे है।
गृहस्थी की व्यस्तता के दौर में बरसों कुछ कवितायें पति के
सँभाले सँभली रहीं और अब लगभग साल भर से कम्पयूटर पर स्वयं भी
संभाल कर रखती हूँ। लिखने के बाद जब भी दुबारा अपनी कविता पढ़ती
हूँ तो उसमें बदलने का मन होता है और प्रायः कविता अलग अलग
मनोभावों का सगंम भी बन जाती है।
मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ है कि कोई भी कविता पूर्ण लगी हो फिर
सोचती हूँ कि मैं कौन कवि हूँ यूँ ही छुट पुट बातें कह कभी
खुशी और कभी गम गलत किया करती हूँ ह्यअरे यह तो लगभग फिल्म का
नाम लिखा गया!हृ परन्तु इस बात से मुझे बिल्कुल शिकायत नहीं जो
जैसा लिखा गया बस हो गया. . . एक बार में या दस बार में . . .
मन की बात कह ली यही बहुत है मेरे लिए।
अच्छा कवि होने के लिये दुखी रहना आवश्यक तो नहीं परन्तु यह सच
है कि मानव मन दुखों को अधिक गरहाई से महसूस करता है अतः लेखन
भी अधिक प्रभावशाली होता है।सच है कि किसी गहरे अनुभव से ही
कविता जैसे कोमल बहाव की शुरूआत होती है। कवितायें पढ़ते समय
आँखे भर आयें या कोई सुखद लहर तनमन को छू जाये यही अच्छी कविता
का निहित गुण है। सुख के सामान्य दिनों में भी अच्छी कविता
लिखी जा सकती है इसमें कोई शक नहीं। शृंगार रस और हास्य व्यंग
कविताओं का भी महत्वर्पूण स्थान है और उन्हें लिखना और भी अधिक
कठिन है।
स्वयं मुझे कविता की प्रेरणा और विषय प्रकृति से लेकर आसपास की
घटनाओं तथा व्यंक्तिगत अनुभवों तक से मिलती है। संवेदनशील
व्यक्ति का कवि होना कार्यक्षेत्र में बाधक तो कभी नहीं होता
बल्कि यह एक ऐसी रचनात्मक रुचि है जो लगभग आवश्यकता के साथ साथ
सहयोग बन जाती है।
सामाजिक जीवन में हिन्दी कविता लिखने से कोई विशेष स्थान
प्राप्त हुआ हो यह कहना कठिन है। यदाकदा पारिवारिक पत्रिकाओं
में प्रकाशन के अलावा मैंने अपना लिखा गिनती के दो एक
व्यक्तियों के साथ ही बाँटा है। मेरे अधिकांश मित्रों को कविता
में विषेश रुचि नहीं है फिर भी मैं उनसे पर्याप्त सराहना पाती
हूँ। निखार के लिये आलोचक मित्र होना आवश्यक है।
मैं निरंतर भाषा विकास और जब जब सम्भव हो लिखते पढ़ते रहने में
विश्वास रखती हूँ इसीलिये नए लिखने वालों से यही कहूँगी कि
जैसा भी हो जो भी हो लिखते रहें। जिन्दगी में जो भी मिले
स्वीकार कर लो हँसकर।
शुभकामनाओं सहित
— नीलम जैन
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