आवारा मन
चंदन के वृक्षों की
खुशबू में डूबा मन
शायद मन राधा है
या फिर है वृंदावन
मन में क्या झूम उठी
अंग-अंग चूम उठी
तन में फिर यौवन की
आँधी-सी घूम उठी
पागल-सा फिरता है
अब तो बंजारा मन
आख़िर क्यों इतना है
दुश्मन आवारा मन!
दूर कहीं कली खिली
नयन-नयन धूप ढली
लहरों के पंखों पर
अधरों की प्यास चली
चलो चलें और छुएँ
सागर का खारा मन
अपनी ही चाहत से
हारा बेचारा मन
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