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जल की बूँदे

नन्हीं–नन्हीं जल की बूँदें,
बरसातों में खेले कूदें

ऊपर से गिर कर
मिट जाएँ,
हम बच्चों का
दिल बहलाएँ

सारी मिल पानी बन जाएँ,
तब मानव की प्यास बुझाएँ

पानी को हम
चलो बचाएँ
बिना वजह
न इसे गिराएँ

—सावित्री तिवारी आज़मी

 

झरना

पत्थर की छाती को फोड़
झरने ने की जग से होड़

दुग्ध-धवल फेनिल-सा उतरा
रूप-रंग भी निखरा-निखरा
धरती पर आ गिरा तो उसने
अपनी राहें खोजीं
ऊबड़-खाबड़ पथरीला पथ
कहा "रास्ता दो जी,
दुर्गम राहों पर चलना है
कंटक बाहों में पलना है
मुझे लगानी है दुनिया में
एक अपरिमित -दौड़।"


मगर कहाँ मिलती हैं जग में
निष्कंटक-सी राहें मग में?
कहीं पे पत्थर कहीं पे ठोकर
कहीं रास्ता सूना
लेकिन इन हालातों में भी
हुआ हौसला दूना
उसने सिर को नहीं झुकाया
और न खुद को वापस पाया
कहा सिर्फ बस इतना ही तो-
"नहीं है मेरा जोड़।"

पत्थर की छाती को फोड़
झरने ने की जग से होड़

--कृष्ण बिहारी

 

इस पर मन बलिहारी है

पर्वत से जो है उगता
उठता गिरता है चलता

इसमें अति उत्साह भरा
रूप बहुत निखरा-निखरा

यह पत्थर से टकराता
हर बाधा को ठुकराता
 
गति है इसमें वीरों की
चमक-दमक है हीरों की

झर-झर झरना झरता है
कल-कल स्वर कर बहता है

इसकी ध्वनि अति प्यारी है
इस पर मन बलिहारी है

—डॉ. बलजीत सिंह

 

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