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मत समझो पाती |
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बरसों हो गए
गाँव-घर की दीवाली देखे
माटी के दीए में घी के बीच
रूई की बाती
पहला दीया देवालय में
जलाकर लौटते थे हम
कहावत झूठ हो जाती थी
चिराग पहले घर में जलाओ
फिर मस्जिद में जलाना
आज बरसों से पहला दीया
अपने ठिकाने से दूर
जल रहा है
घर के बड़े बेटे की तरह
और उसकी रोशनी में कहीं
कोई उजास नहीं है
जबसे चार कदम आगे बढ़ आए
छूट गया सबकुछ बहुत पीछे
भाईचारा, अपनापन, पड़ोसी धर्म
इनके मायने खो गए है
चिराग तले रोशनी की तरह,
स्मृतियों में रह गए हैं घरौंदे
जिनमें हर दिन होली और रात
दीवाली के उजाले में
वैमनस्यता के साये से भी अस्पृश्यता
निभाते हुए गुज़रती थी मोहब्बत
किसी अल्हड़ गवई लड़की की तरह,
वो घरौंदा मुझे लौटा दो मेरे वक़्त
मैं सचमुच दीवाली मनाना चाहता हूँ
इसे समझो तुम तार,
मत समझो पाती।
-कृष्ण बिहारी
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फुलझड़ियाँ लिख देती
(1)
मन के
अँधियारों में जलती
एक दीप-सी तुम!
आँखों से छू लेती,
पोर-पोर में जैसे
फुलझड़ियाँ लिख देती
घोर अमावस
के पृष्ठों पर
चाँद-दीप-सी तुम!
बस्ती जब सो जाती,
याद तुम्हारी घर में
शहनाई-सी गाती
भीड़ भरे
इस कोलाहल में
मौन सीप-सी तुम!
(2)
दिए-सा
कब से जल रहा हूँ मैं,
तुम आओ!
चाहे हवा-सी आओ
और बुझा दो मुझे,
यह रंगीन आत्मघात
मंज़ूर है मुझे
क्योंकि
इस बहाने ही सही
तुम मुझे छुओगी तो!
(3)
मन के आकाश पर घिरते
अवसाद के अँधेरे में
तुम्हारी याद
अकसर
किसी पूनम के चाँद-सी
दबे पाँव आती है
और फिर सचमुच!
बे-मौसम
मेरी रग-रग
दीवाली हो जाती है।
डॉ. हरीश निगम
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