उतर कर चाँद
उतर कर चाँद पूनम का खड़ा डलझील में
जैसे
कुँआरा रूप लगता इक दिया कन्दील में जैसे।
ठहर जातीं उलझ कर ये निगाहें इस तरह
अक्सर,
फँसा हो छोर आँचल का पटे की कील में जैसे।
सलोना रूप निखरा डूब कर कुछ प्यार
में ऐसे,
चमक जाती सफ़ेदी और ज़्यादा नील में जैसे।
अचानक ज़िन्दगी में बढ़ गईं
सरगर्मियाँ इतनी,
चला आया बड़ा हाकिम किसी तहसील में जैसे।
हँसे कुछ देर तक हम आँसुओं के दौर
से पहले,
उछल कर एक पत्थर डूब जाए झील में जैसे।
उभर आए अचानक हादसे खामोश आँखों
में,
लिखे हों साफ़ सब मुद्दे किसी तफसील में जैसे।
हुआ अहसास ऐसा बादलों में चाँद छिपने पर,
अकेलापन बिखर जाए हज़ारों मील में जैसे।
चुराकर वक्त से दो पल पुरानी याद दुहरा ली,
मना ली हो दिवाली एक मुट्ठी खील में जैसे।
बने हैं दृश्य सारे पुतलियों पर इस करीने से,
कि 'भारद्वाज' उतरे कैमरे की रील में जैसे।
२५ मई २००९ |