अनुभूति में
चंद्रभान भारद्वाज
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नहीं मिलते
मैं एक सागर हो गया
राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
हर किरदार की अपनी जगह
अंजुमन
में-
अधर में हैं हज़ारों प्रश्न
आदमी की सिर्फ इतनी
उतर कर चाँद
कदम भटके
कागज पर भाईचारे
कोई नहीं दिखता
खोट देखते हैं
गगन का क्या करें
जब कहीं दिलबर नहीं होता
ज़िन्दगी बाँट लेंगे
गहन गंभीर
तालाब में दादुर
दुखों की भीड़ में
नाज है तो है
नदी नाव जैसा
पीर अपनी लिखी
फँसा आदमी
मान बैठे है
रात दिन डरती हुई-सी
रूप को शृंगार
सत्य की ख़ातिर
सिमट कर आज बाहों में
संकलन में-
होली पर
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सत्य की ख़ातिर
सत्य की खातिर उजाले में जिरह करते रहे
झूठ से लेकिन अँधेरे में सुलह करते रहे
पीठ सहलाते रहे तब तक बड़े ही प्यार से
जब तलक गर्दन हमारी वे ज़िबह करते रहे
भूख पीकर सिर्फ पानी ढाँक कर मुँह सो गई
रात केवल रोटियों की बात वह करते रहे
शाम ढलते मयकदे की ओर बढ़ जाते कदम
प्रण न जाने का उधर वे हर सुबह करते रहे
गूँजती है आज जय जयकार उनके नाम की
जो कभी दरियाँ बिछाते और तह करते रहे
लग रहे चिंतित बहुत जो आज के हालात से
वे स्वयं शोषण समय का हर तरह करते रहे
मार 'भारद्वाज' को कुहनी किनारे कर दिया
बीच जाजम पर मगर खुद को जगह करते रहे
१९
जुलाई २०१०
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