रूप को शृंगार
रूप को शृंगार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं,
ज़िन्दगी को प्यार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं।
बंद आँखें रात भर जिसकी प्रतीक्षा में रहीं,
स्वप्न वह सुकुमार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं।
कल्पनाएँ नित बनातीं भव्य सपनों के
महल,
पर उन्हें आकार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं।
चाहता है मन कभी ऐसा कभी वैसा बनूँ,
पर वही किरदार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं।
मानिनी बन कर यहाँ बैठी हुई है
भावना,
मान को मनुहार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं।
आँख के बाहर कभी आने नहीं देना उसे,
अश्रु को पुचकार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं।
प्यार की प्रस्तावना को आज
'भारद्वाज' इक,
सौम्य उपसंहार मिल जाए ज़रूरी तो नहीं।
२५ मई २००९ |