सिमट कर आज बाँहों में
सिमट कर आज बाँहों में चलो आकाश तो
आया,
उतर कर एक टुकड़ा चाँदनी का पास तो आया।
तरसते थे कभी दालान अपने गुनगुनाने
को,
घुँघरुओं के खनकने का वहाँ आभास तो आया।
ठहरते थे जहाँ बस आँसुओं के काफिले
आकर,
अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया।
समय की मुट्ठियों में फैसला तो बंद
बाजी का,
मुक़द्दर आजमाने के लिए उल्लास तो आया।
हवाओं ने कभी जिन खिड़कियों के काँच
तोड़े थे,
उन्हीं वातायनों से अब मलय वातास तो आया।
अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का
परिचय,
उजड़ती क्यारियों में फिर नया मधुमास तो आया।
निगाहें मोड़ कर हम से सभा में जो
रहे अब तक,
उन्हें भी आज 'भारद्वाज' पर विश्वास तो आया।
२५ मई २००९ |