कदम भटके
कदम भटके हुए हों तो उन्हें मंज़िल
दिखाता चल,
लकीरें खींच कर उस राह का नक्शा बनाता चल।
किसी अनजान राही का सफ़र आसान करने
को,
बतायें दूरियाँ वे मील के पत्थर लगाता चल।
यही मंदिर समझ अपना यही मस्जिद समझ
अपनी,
गरीबों बेसहारों को दुआ थोड़ी मनाता चल।
तुम्हारी देह से हर वक्त सौंधी गंध
आयेगी,
तनिक इस गाँव की मिट्टी से उबटन कर नहाता चल।
छनकते छंद उतरेंगे खनकते गीत
आयेंगे,
पिरोकर शब्द उनमें दर्द के घुँघरू सजाता चल।
उठा दी है घृणा की जिस जगह दीवार
आँगन में
ढहा कर अब उसे कुछ प्रेम के पौधे उगाता चल।
यहाँ बैठे हुए जो लोग युग से घुप
अंधेरे में,
गुज़रते वक्त 'भारद्वाज' इक दीपक जलाता चल।
१४ सितंबर २००९ |