अनुभूति में
चंद्रभान भारद्वाज
की रचनाएँ -
नई रचनाएँ-
नहीं मिलते
मैं एक सागर हो गया
राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
हर किरदार की अपनी जगह
अंजुमन
में-
अधर में हैं हज़ारों प्रश्न
आदमी की सिर्फ इतनी
उतर कर चाँद
कदम भटके
कागज पर भाईचारे
कोई नहीं दिखता
खोट देखते हैं
गगन का क्या करें
जब कहीं दिलबर नहीं होता
ज़िन्दगी बाँट लेंगे
गहन गंभीर
तालाब में दादुर
दुखों की भीड़ में
नाज है तो है
नदी नाव जैसा
पीर अपनी लिखी
फँसा आदमी
मान बैठे है
रात दिन डरती हुई-सी
रूप को शृंगार
सत्य की ख़ातिर
सिमट कर आज बाहों में
संकलन में-
होली पर
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मान बैठे हैं
खरीदी हर कलम मसि और कागज मान
बैठे हैं
खड़े जो कठघरे में खुद को ही जज मान बैठे हैं
चमक जाते जो जुगनू की तरह जब तब अँधेरे में
स्वयं को अब क्षितिज पर उगता सूरज मान बैठे हैं
उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं
किसी कुर्सी के आगे टेक आते हैं कभी मत्था
किसी कुर्सी के फेरों को ही वो हज मान बैठे हैं
धँसे हैं पाँव से लेकर गले तक पूरे कीचड़ में
मगर कीचड़ में खुद को खिलता पंकज मान बैठे हैं
किसी की चाल चलते हैं किसी से मात देते हैं
वो मोहरे साधने में खुद को दिग्गज मान बैठे हैं
लगाते आ रहे हैं सिर्फ डुबकी गंदे नाले में
उसे ही आज 'भारद्वाज' सतलज मान बैठे हैं
३१ अक्तूबर २०११ |