अधर में हैं
हज़ारों प्रश्न अधर में हैं
हज़ारों प्रश्न कोई हल नहीं मिलता,
टिकाने को ज़रा सा पाँव भी भूतल नहीं मिलता।
निगाहें ताकती रहतीं महज़ आकाश को
हर दम,
क्षितिज पर दूर तक पानी भरा बादल नहीं मिलता।
न जाने कब चुरा कर ले गया बहुरूपिया
मौसम,
घटा की आँख में आँजा हुआ काजल नहीं मिलता।
कुल्हाड़ी की निगाहों से बचा ले
आबरू अपनी,
किसी भी पेड़ को ऐसा कहीं जंगल नहीं मिलता।
सिमट कर चीथड़ों में उम्र सारी बीत
जाती है,
कुँवारी कामना को रेशमी आँचल नहीं मिलता।
कुआँ से बावड़ी तक झील तालों से
तलैयों तक,
भरी है सिर्फ़ दलदल अन्जुरी भर जल नहीं मिलता।
कहीं काँटे बिछे मिलते कहीं पत्थर
गड़े मिलते,
कि 'भारद्वाज' कोई रास्ता समतल नहीं मिलता।
१४ सितंबर २००९ |