अनुभूति में
चंद्रभान भारद्वाज
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नहीं मिलते
मैं एक सागर हो गया
राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
हर किरदार की अपनी जगह
अंजुमन
में-
अधर में हैं हज़ारों प्रश्न
आदमी की सिर्फ इतनी
उतर कर चाँद
कदम भटके
कागज पर भाईचारे
कोई नहीं दिखता
खोट देखते हैं
गगन का क्या करें
जब कहीं दिलबर नहीं होता
ज़िन्दगी बाँट लेंगे
गहन गंभीर
तालाब में दादुर
दुखों की भीड़ में
नाज है तो है
नदी नाव जैसा
पीर अपनी लिखी
फँसा आदमी
मान बैठे है
रात दिन डरती हुई-सी
रूप को शृंगार
सत्य की ख़ातिर
सिमट कर आज बाहों में
संकलन में-
होली पर
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राह दिखती है न दिखता
है सहारा कोई
राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
जाये तो जाये कहाँ वक़्त का मारा कोई
उम्र धुँधुआती रही गीली सी लकड़ी की तरह
पर न चिनगारी बनी है न अँगारा कोई
तैरती रहती तो लग जाती किनारे पे कहीं
डूबती नाव को मिलता न किनारा कोई
प्यास अधरों की बुझाते तो बुझाते कैसे
या तो था रेत कि तालाब था खारा कोई
जिन पतंगों की कटी डोर फँसी काँटों में
उनको आकाश न मिलता है दुबारा कोई
छोड़ कुछ देर चमक खोया अँधेरों में कहीं
जब भी आकाश से टूटा है सितारा कोई
शांत माहौल में होती है अचानक हलचल
द्वार को करती है जब खिड़की इशारा कोई
हमने खुशियों का खजाना ही लुटाया था यहाँ
पर हमें दे के गया गम का पिटारा कोई
जब न पूरा है सफर और न थका है वो अभी
क्यों तलाशेगा 'भरद्वाज' किनारा कोई
१० नवंबर २०१४
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