अनुभूति में
चंद्रभान भारद्वाज
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नहीं मिलते
मैं एक सागर हो गया
राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
हर किरदार की अपनी जगह
अंजुमन
में-
अधर में हैं हज़ारों प्रश्न
आदमी की सिर्फ इतनी
उतर कर चाँद
कदम भटके
कागज पर भाईचारे
कोई नहीं दिखता
खोट देखते हैं
गगन का क्या करें
जब कहीं दिलबर नहीं होता
ज़िन्दगी बाँट लेंगे
गहन गंभीर
तालाब में दादुर
दुखों की भीड़ में
नाज है तो है
नदी नाव जैसा
पीर अपनी लिखी
फँसा आदमी
मान बैठे है
रात दिन डरती हुई-सी
रूप को शृंगार
सत्य की ख़ातिर
सिमट कर आज बाहों में
संकलन में-
होली पर
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फँसा आदमी
कभी दफ्तरों में कभी कठघरों में
फँसा आदमी कागजी अजगरों में
तमन्ना रही आसमानों को छूएँ
मगर ठोक रक्खी हैं कीलें परों में
कहाँ से उगेगी नई पौध कोई
घुने बीज बोये हुए बंजरों में
अगर मर गईं सारी संवेदनाएं
रहा फर्क क्या वनचरों में नरों में
खड़े प्रश्न ही प्रश्न हर ओर अपने
न है कोई विश्वास अब उत्तरों में
मचलती हुई ज़िन्दगी थम गई है
नदी जैसे खोई कहीं गह्वरों में
करे राख अन्याय के हर किले को
अगन ऐसी पैदा करें अक्षरों में
जिसे खोजना था स्वयं के ही अंदर
उसे खोजता आदमी पत्थरों में
हुए हैं 'भरद्वाज' हालात ऐसे
रहें ज्यों किराए से अपने घरों में
१८ नवंबर २०१३
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