अनुभूति में
चंद्रभान भारद्वाज
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नहीं मिलते
मैं एक सागर हो गया
राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
हर किरदार की अपनी जगह
अंजुमन
में-
अधर में हैं हज़ारों प्रश्न
आदमी की सिर्फ इतनी
उतर कर चाँद
कदम भटके
कागज पर भाईचारे
कोई नहीं दिखता
खोट देखते हैं
गगन का क्या करें
जब कहीं दिलबर नहीं होता
ज़िन्दगी बाँट लेंगे
गहन गंभीर
तालाब में दादुर
दुखों की भीड़ में
नाज है तो है
नदी नाव जैसा
पीर अपनी लिखी
फँसा आदमी
मान बैठे है
रात दिन डरती हुई-सी
रूप को शृंगार
सत्य की ख़ातिर
सिमट कर आज बाहों में
संकलन में-
होली पर
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जब कहीं दिलबर
नहीं होता
इक ज़िन्दगी में जब कहीं दिलबर
नहीं होता
होते दरो-दीवार तो पर घर नहीं होता
जिसकी नसों में आग का दरिया न बहता हो
काबिल भले हो वह मगर शायर नहीं होता
लहरें न उठतीं हों नहीं तूफ़ान ही आते
सूखा हुआ तालाब इक सागर नहीं होता
जो नब्ज पहचाने न समझे धड़कनें दिल की
होता है सौदागर वो चारागर नहीं होता
उमड़ीं घटाएँ जब कभी बिन प्यार के बरसीं
तन भीग जाता है मगर मन तर नहीं होता
यादों की खुशबू से अगर दालान भर जाते
गुलज़ार सपनों का महल खँडहर नहीं होता
यदि प्यार के बीजों में अंकुर फूटते पहले
तो खेत 'भारद्वाज' का बंजर नहीं होता
३१ अक्तूबर २०११ |