अनुभूति में
अमित कुमार सिंह की रचनाएँ—
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ट्रैफ़िक जाम
चेहरे पर
चेहरा
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नारी समानता - एक परिवर्तन
नेता और नरक का द्वार
प्रकृति-प्रदूषण-कलाकार
भूत
हास्य
व्यंग्य में-
इंतज़ार
कौन महान
कविताओं में-
अंधकार
कौन है बूढ़ा
दीप प्रकाश
नव वर्ष का संदेश
नादान मनुष्य
परदेशी सवेरा
फ़र्ज़ तुम्हारा
भूख
मशहूर
माँ
माटी की गंध
मेरे देश के नौजवानों
यमराज का इस्तीफ़ा
रोज़ हमेशा खुश रहो
विवाह |
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परदेशी सवेरा
सुबह-सुबह आँखें खुलीं
हो गया था सवेरा
मन में जगा एक कौतूहल
कैसा होगा ये
परदेशी सवेरा
बात है उन दिनों की
था जब मैं लंदन में
लपक कर उठा मैं
खोल डाली सारी
खिड़कियाँ,
भर गया था अब
कमरे में उजाला
रवि कि किरनों ने
अब मुझ पर था
नज़र डाला
ध्यान से देखा
तो पाया नहीं है
अंतर उजाले की किरनों में
सवेरे की ताज़ग़ी में
या फिर बहती सुबह
की ठंडी हवाओं में,
पाया था मैंने उनमें भी
अपनेपन का एहसास
लगता था जैसे कोई
अपना हो बिलकुल पास
मैंने तब ये जाना
अलग कर दूँ
अगर भौतिकता की
चादर को तो
पाता हूँ एक ही
है सवेरा,
चाहे हो वो लंदन
या फिर हो प्यारा
देश मेरा
24 जनवरी 2007
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