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परदेशी सवेरा

सुबह-सुबह आँखें खुलीं
हो गया था सवेरा
मन में जगा एक कौतूहल‌
कैसा होगा ये
परदेशी सवेरा
बात है उन दिनों की
था जब मैं लंदन में
लपक कर उठा मैं
खोल डाली सारी
खिड़कियाँ,
भर‌ ग‌या था अब‌
कमरे में उजाला
रवि कि किरनों ने
अब‌ मुझ‌ पर था
नज़र डाला
ध्यान से देखा
तो पाया नहीं है
अंतर उजाले की किरनों में
सवेरे की ताज़‌ग़ी में
या फिर‌ बहती सुबह‌
की ठंडी हवाओं में,
पाया था मैंने उनमें भी
अप‌नेप‌न‌ का एहसास
लगता था जैसे कोई
अपना हो बिलकुल‌ पास
मैंने तब ये जाना
अलग कर दूँ
अगर‌ भौतिकता की
चादर‌ को तो
पाता हूँ एक‌ ही
है सवेरा,
चाहे हो वो लंदन‌
या फिर हो प्यारा
देश‌ मेरा

24 जनवरी 2007‌

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