अनुभूति में
अमित कुमार सिंह की रचनाएँ—
नई कविताएँ-
ट्रैफ़िक जाम
चेहरे पर
चेहरा
ज़िंदगी ऐसे जियो
धूम्रपान - एक कठिन काम
नारी समानता - एक परिवर्तन
नेता और नरक का द्वार
प्रकृति-प्रदूषण-कलाकार
भूत
हास्य
व्यंग्य में-
इंतज़ार
कौन महान
कविताओं में-
अंधकार
कौन है बूढ़ा
दीप प्रकाश
नव वर्ष का संदेश
नादान मनुष्य
परदेशी सवेरा
फ़र्ज़ तुम्हारा
भूख
मशहूर
माँ
माटी की गंध
मेरे देश के नौजवानों
यमराज का इस्तीफ़ा
रोज़ हमेशा खुश रहो
विवाह |
|
माटी की गंध
कभी अच्छी
तो कभी बुरी
लगती है
माटी की गंध।
लगती है
एक सुंदर-सी
सुगंध,
अगर हो इनमें
खलिहानों, बगानों
के रंग।
बन जाती है
यही एक
बुरी गंध,
रहती है जब
ये नालों
के संग।
ग़रीबों के झोंपड़ों में
होती है बेमोल,
रईसों के आँगन में
हो जाती है ये अनमोल।
बंजर है तो
वीराना ही है
इसका साथी,
उपजाऊ होकर
बन जाए ये
किसानॊं कि थाती।
माटी का ये रंग
हमें ये सिखलाए,
काम अगर
दूसरों के आए,
अच्छी संगत
अगर अपनाए,
तो फैलेगी
तुम्हारी गंध
बनके एक सुगंध,
और मिटने
से पहले,
माटी में मिलने
से पहले,
जान जाएगा
तेरा ये तन
जीवन का
सही रंग।
24 जनवरी 2007
|