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  भूख

'भूख' सुनते ही होता है अहसास
किसी चाहत का, किसी कमी का
ज़िंदगी के दरवाज़े पर
बार-बार दस्तक देती
किसी आहट का।
किसी को भूख है
शोहरत की
किसी को है रोज़गार की
किसी को वासना की
तो कोई पैसों का भूखा है।
किसी को ताकत की भूख है
किसी को सेहत की
तो कोई हुस्न का दीवाना है
विलासिता का कोई
उड़ता हुआ परवाना है।
भाइयों देखो क्या आया ज़माना है।
मित्र 'अमित' तुम भी नहीं हो कम
लगी रहती है तुम्हें भी तो
लेखन की भूख हरदम।
नज़रें उठा के देखो
नहीं हो तुम अकेले
भूखों की इस नगरी में
तुमसे भी बढ़कर हैं अलबेले।
सड़क पर खड़े उस बेबस-लाचार
बूढे को देखो
फैले हुए हाथ, चेहरे की दीनता
और आंखों से छलकती
भूख को तो देखो!
उसकी ये भूख
हमारी भूख से है बिल्कुल अलग-
खुद की हड्डियों को गलाकर,
क्षुधा की अग्नि को जला कर,
कर रहा है वो
'भूख' शब्द के अर्थ को,
वास्तव में सार्थक।
16 अप्रैल
2006

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