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अनुभूति में मदन मोहन अरविंद की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
कौन जाने
दवा हो या ज़हर
दोपहर हो कि शाम
नई रंगत
फिर वही किस्सा पुराना

गीतों में-
कह दो किसी और घर जाए
साहिल को अपनाना हो तो
हर दुख पर इतना भर कह ले

अंजुमन में—
अच्छा लगता है
कैद हैं साँसें
चुप रहना हो
छत मैं तुम आँगन
जिंदगी के जश्न
जो वफा से
डाल हिलाकर देखो
दिन गया
दिल को बहला जाती थी
देखना चाहे इधर
पत्थरों को आइना कैसे कहूँ
पतझड़ को न देना तूल
बड़ी बेजोड़ ये सौग़ात होती
भूख का मतलब
मैं चला तुम भी चलो
रात सुलाती
रोज खुले मे
वक्त की दरियादिली
वक्त ने दो ग़म दिए

वही सूरत वही साया
वो टहलते वक्त
शोर भारी हो रहा है
हाथ गैरों से मिलाया

कुंडलियों में-
पाँच मौसमी कुंडलियाँ

 

फिर वही किस्सा पुराना

फिर वही किस्सा पुराना चल पड़ा
ज़िन्दगी तेरा बहाना चल पड़ा।

दर्द चेहरे पर न आये इस लिए
गर्दिशों में मुस्कुराना चल पड़ा।

आँसुओं का जोर अब चलता नहीं
हर घड़ी पीना पिलाना चल पड़ा।

पास जो आने लगीं तनहाइयाँ
हलचलों का दूर जाना चल पड़ा।

जब रुके तो वक़्त का पहिया रुका
चल पड़े हम तो जमाना चल पड़ा।

३ फरवरी २०१४

 

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