दिन गया
दिन गया ठहरे रहे हालात,
फिर वही सपने अकेली रात।
वादियाँ गुमसुम दिशायें मौन,
कौन करता धड़कनों से बात।
फैसलों पर उलझनों का बोझ,
हसरतों पर बेबसी तैनात।
छल गई चौथे पहर के साथ,
घोर तम को किरन की सौग़ात।
दूर घर से रह न पाई और,
घूम फिर कर लौट आई प्रात।
१४ सितंबर २००९ |