अनुभूति में
कल्पना रामानी
की रचनाएँ-
कुंडलिया में-
नारी अब तो
उड़ चली
नये गीतों में-
काले दिन
गुलमोहर की छाँव
चलो नवगीत गाएँ
धूप सखी
ये सीढ़ियाँ
अंजुमन में-
कभी तो दिन वो आएगा
कल जंगलों का मातम
जिसे पुरखों ने सौंपा था
देश को दाँव पर
मन पतंगों संग
वतन को जान हम जानें
गीतों में-
अनजन्मी बेटी
ऋतु बसंत आई
जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
नारी जहाँ सताई जाए
बेटी तुम
भ्रमण पथ
दोहों में-
इस अनजाने शहर में
शीत ऋतु
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नारी अब तो उड़ चली
नारी अब तो उड़ चली, आसमान की ओर,
चाँद सितारे छू रही, थाम विश्व की डोर।
थाम विश्व की डोर, जगत ने शीश नवाया,
दृढ़ निश्चय के साथ, हार को जीत दिखाया।
पाया यश सम्मान, दंग है दुनिया सारी।
नये वक्त के साथ, चल पड़ी है अब नारी।
घरनी से ही घर सजे, जुड़ें दिलों के तार,
श्रम उसका अनमोल है, घर की वो आधार।
घर की वो आधार, महकता रहता आँगन,
बरसे प्यार अपार, लगे पतझड़ भी सावन।
सीधी सच्ची बात,‘कल्पना’इतनी कहनी,
स्वर्ग बने संसार, अगर घर में हो घरनी।
मैं नारी अबला नहीं, बल्कि लचकती डाल।
मेरा इस नर-जूथ से, केवल एक सवाल।
केवल एक सवाल, उसे क्यों समझा कमतर,
जिसके उर में व्योम और कदमों में सागर।
परिजन-प्रेम, ममत्व, मोह की मारी हूँ मैं,
मेरा बल परिवार, न अबला नारी हूँ मैं।
नर-नारी दो चक्र हैं, जीवन रथ की शान।
बना रहेगा संतुलन, गति हो अगर समान।
गति हो अगर समान, न होगा रस्ता बाधित।
गृहस्थी का गुलदान, रहेगा सदा सुवासित।
आँगन को आबाद, रखेंगी खुशियाँ सारी।
बढ़ें मिलाकर हाथ, साथ में यदि नर-नारी।
घर बाहर के बोझ से, नारी है बेचैन।
हक़ तो उसने पा लिए, मगर खो दिया चैन।
मगर खो दिया चैन, बढ़ाया बोझा अपना।
किसे सुनाए दर्द, स्वयं ही बोया सपना।
करें स्वजन सहयोग, अगर अब आगे रहकर,
बंट जाएगा बोझ, रहे बाहर या फिर घर।
५ मई २०१४
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