अनुभूति में
कल्पना रामानी
की रचनाएँ-
नये गीतों में-
काले दिन
गुलमोहर की छाँव
चलो नवगीत गाएँ
धूप सखी
ये सीढ़ियाँ
अंजुमन में-
कभी तो दिन वो आएगा
कल जंगलों का मातम
जिसे पुरखों ने सौंपा था
देश को दाँव पर
मन पतंगों संग
वतन को जान हम जानें
नई रचनाओं में-
अनजन्मी बेटी
ऋतु बसंत आई
जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
नारी जहाँ सताई जाए
बेटी तुम
भ्रमण पथ
दोहों में-
इस अनजाने शहर में
शीत ऋतु
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कल जंगलों का मातम
कल जंगलों का मातम, देखा क़रीब से।
पेड़ों को तोड़ते दम, देखा क़रीब से।
जो काल बनके आए, थे तो मनुष्य ही।
पर हाथ कितने निर्मम, देखा क़रीब से।
रह रह के ज़ालिमों की, चलती थीं आरियाँ।
बरबादियों का वो क्रम, देखा क़रीब से।
रोई थी डाली-डाली, काँपी थी हर दिशा।
फिर सिसकियों का आलम, देखा क़रीब से।
अपने ही राज से थे, जो बेदखल हुए।
उन चौपदों का वो गम, देखा करिब से।
यह हश्र देख वन का, मन टूटता गया।
दिन के उजाले में तम, देखा करीब से।
४ फरवरी २०१३
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