अनुभूति में
कल्पना रामानी
की रचनाएँ-
नये गीतों में-
काले दिन
गुलमोहर की छाँव
चलो नवगीत गाएँ
धूप सखी
ये सीढ़ियाँ
अंजुमन में-
कभी तो दिन वो आएगा
कल जंगलों का मातम
जिसे पुरखों ने सौंपा था
देश को दाँव पर
मन पतंगों संग
वतन को जान हम जानें
नई रचनाओं में-
अनजन्मी बेटी
ऋतु बसंत आई
जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
नारी जहाँ सताई जाए
बेटी तुम
भ्रमण पथ
दोहों में-
इस अनजाने शहर में
शीत ऋतु
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देश को दाँव पर
इस कदर ख्वाब वे सजा बैठे।
देश को दाँव पर लगा बैठे।
मानकर मिल्कियत महज अपनी,
तख्त औ ताज को लजा बैठे।
मानवी मूल्य सब चढ़े सूली,
फर्ज़ को कब्र में दबा बैठे।
दीप रौशन किए फ़कत अपने,
आशियाँ औरों का जला बैठे।
आब आँखों की लुट चुकी उनकी,
आबरू स्वत्व की लुटा बैठे।
डूबते खुद अगर मुनासिब था,
बेरहम दुखियों को डुबा बैठे।
काश! दिखलाए राह साल नया,
जो गए व्यर्थ ही गँवा बैठे।
४ फरवरी २०१३
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