अनुभूति में
कल्पना रामानी
की रचनाएँ-
नये गीतों में-
काले दिन
गुलमोहर की छाँव
चलो नवगीत गाएँ
धूप सखी
ये सीढ़ियाँ
अंजुमन में-
कभी तो दिन वो आएगा
कल जंगलों का मातम
जिसे पुरखों ने सौंपा था
देश को दाँव पर
मन पतंगों संग
वतन को जान हम जानें
गीतों में-
अनजन्मी बेटी
ऋतु बसंत आई
जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
नारी जहाँ सताई जाए
बेटी तुम
भ्रमण पथ
दोहों में-
इस अनजाने शहर में
शीत ऋतु
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ये सीढ़ियाँ
बदनसीबों को बसाकर गोद में,
ढँकती रहीं ये सीढ़ियाँ।
जो कदम मंदिर तलक पहुँचे उन्हें,
लखती रहीं ये सीढ़ियाँ।
धूप, दीपक आरती
से, जाग जाती रोज़ प्रात।
दिन भजन करते मगन
औ’ बाँटतीं शामें प्रसाद।
शेष को भूखे नयन तरसा किए,
तकती रहीं ये सीढ़ियाँ।
मूर्तियों के सामने,
लगते रहे नित रत्न ढेर।
तिलक धारी चेहरे,
फलते रहे कुछ मंत्र टेर।
चंद सिक्के पुण्य पाने जो गिरे,
गिनती रहीं ये सीढ़ियाँ।
शंख बजते ही रहे,
बढ़ती रही भूखी कतार।
सीढ़ियों का दर्द से,
होता रहा दिल तार-तार।
देव, आँखें बंद कर सोते दिखे,
जगती रहीं ये सीढ़ियाँ।
ख़ुदकुशी ये कर न पाईं,
छोडकर इतने अनाथ।
व्यग्र अंधी भीड़ में,
कोई नहीं था नेक हाथ।
सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए,
दबती रहीं ये सीढ़ियाँ।
३ मार्च २०१४
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