अनुभूति में
कल्पना रामानी
की रचनाएँ-
नये गीतों में-
काले दिन
गुलमोहर की छाँव
चलो नवगीत गाएँ
धूप सखी
ये सीढ़ियाँ
अंजुमन में-
कभी तो दिन वो आएगा
कल जंगलों का मातम
जिसे पुरखों ने सौंपा था
देश को दाँव पर
मन पतंगों संग
वतन को जान हम जानें
नई रचनाओं में-
अनजन्मी बेटी
ऋतु बसंत आई
जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
नारी जहाँ सताई जाए
बेटी तुम
भ्रमण पथ
दोहों में-
इस अनजाने शहर में
शीत ऋतु
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जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
चुन चुन पेड़ चीरती आरी
कल उसकी अब इसकी बारी
पंछी नीड़ यहाँ
मत बाँधो
यहाँ नहीं आरक्षण तेरा
तिनके क्यों तुम लेकर आए
ना तुमने दी घूस किसी को
तुझे सुरक्षा कौन दिलाए
घायल होंगे तेरे चूज़े
क्या होगा फिर
साधो साधो
गाँव नहीं यह शहर बंधुवर
कहर वनों पर ही टूटा है
निर्दय मानव बना लुटेरा
वन जीवों का घर लूटा है
जाल बिछा है अतिक्रमण का
निपट अकेले
तुम हो माधो
कहीं दूर उड़ जाओ पंछी
डालो किसी गाँव में डेरा
घने पेड़ हों सुखद धूप हो
खेतों में जल अन्न घनेरा
वहाँ तुम्हारा स्वागत होगा
पुरखों का यह शहर
भुला दो
९ अप्रैल २०१२
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