विवशता
ख़ुद को कब तक स्थगित करते रहते
कभी न कभी तो ख़ुद को सार्वजनिक रूप से
उछालना था
विकल्प की देहरी को लाँघना ही था
अतीत लिपट जाता है किसी न किसी रूप में और कहीं न कहीं
अतीत की निंदा में कुछ अधिक सुख नहीं मिलता
किंतु एक ध्रुवीकरण ले बनता ही है
कल्पना के माध्यम से
शब्दों के नित नए आकार बनते हैं
एक धरती बनती है
अपने पाँव धँसाने के लिए
बिना किसी नक्शे के एक शहर बसता
जाता है
शहर की मर्यादा अधिक देर सलामत नहीं रह पाती
सभी परिपक्वता से आतंकित नहीं हो पाते
बेतरतीब चेहरों का उद्घाटन होता रहता है
चेहरों का समूह ही एक उपलब्धि है
गरचे संबंधों कोई अधिक मूल्य नहीं बचता
व्यक्तिगत विवशता हो या सामूहिक
धारणा
शब्दों पर क्या संवाद बने
जो जनमत को घेरता रहे
या खुद को झुँझलाता रहे
हर आवाज़ को एक ख़तरा बना रहता है
कि कहीं अनसुनी न रह जाए
या परंपरा से चिपकी हुई पीढ़ी
आधुनिकता की चोली न पहन सके
मुक्ति की नई नई उड़ाने
पुनः लोट कर कही दायरे में न बँध जाए
जन्मगत संस्कारों की बेड़ियाँ
इतनी जल्दी नहीं टूटती
फिर भी एक लंबे वक़्त तक टाला नहीं जा सकता
जो यथार्थ है उसको भोगना है
जो ज़हर है उसे पीना है
ज़रूरत है अगर तो आत्मबल की
अब सच को स्थगित किया नहीं जा सकता
और खुद को बेइज़्ज़त किया नहीं जा सकता।
३१ अगस्त २००९
|