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मुद्दतों से इक आँसू छिपा रखा था
आज वो भी बह गया है किसी बात पे
आँसू कोई अनमोल तो न था फिर भी
कुछ न कुछ कह गया है हालात पे
याददाश्त के लम्हे काफी थे चुप रहने को
तर्ज़े-बयानी चुप न सकी, बेबस थी
यों ख़ामोशी ने अपना फ़र्ज़ निभाया था
ज़िंदगानी ज़्यादा कह न सकी, बेबस थी
काश! बेपर्दा करता अपने दिल को कभी
शायद कोई सकून की रिश्ता बन ही जाता
उम्र की बेहिसाबी का अब क्या करना
जो गर कहना होता वो सुन ही जाता

खूने तमन्ना देख तू अपनी नाइंसाफ़ी
इंकलाब का कोई इमकाँ नहीं हैं
सदियों से प्यासी, बेग़ैरत धरती पे
सिर ढ़कने का कोई आस्माँ नहीं है

७ अप्रैल २००८

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