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एक गुफ़ा से निकल कर दूसरी गुफ़ा में आ पहुँचा
साथ अगर मेरे कोई चली तो मेरी गफ़लत थी वो

हसरतों की कौसे कुजहे बनती तो थीं मेरे आस्मां पे
मगर राह मुड़ती गई हर गली तो मेरी वसीअत थी वो

सवाले पशेमानी पे कोई जवाब मुझसे बनता ही न था
इक अरसे से शायद सवाली रहना रुहानी गिज़ा थी मेरी

सब्रे दानिश का सकूत सकते मर्गे नागहानी से कम न था
और ख़ामोशी से सब कुछ सहना नफ़सयाती फ़िज़ा थी मेरी

मैं सलीबों को गिनता हुआ राहे ज़िन्दगी से गुज़रता गया
कोई भी शख्स तस्वीरे ईसा से ज़्यादा हसीन न लगा मुझे

सूने शहादत की महक इंसानी रिश्तों में महकती रही
मलाल इतने बढ़े के कोई भी रिश्ता रंगीन न लगा मुझे

रोशनियों में घिरने के बाद भी जुलाते सोज़े गम़कान न हुई
महफ़िलों के पिंदार सजे ज़ब्ते तमन्ना को कुछ हासिल न हुआ

गेतीये सुख़न की परवरिश करने का कुछ हक़ तो बनता था
मगर ज़ौके सुखन शायद अपनी बिना पे कामिल न हुआ

१ अप्रैल २००५

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