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शब्दार्थ-
माज़ी = अतीत, रूदादें = कथाएँ, तर्जुबात = व्यक्तिगत अनुभव, दवादिस = दुर्घटनाएँ,

  खेल

कोन ऊपर बैठा शतरंज खेल रहा है
खेल-खेल में रंज बढ़ता जाता है
और खेल का जज़्बा ही खो गया है

हर कोई आगे बढ़ना चाहता है
दायें से बायें से
जो रास्ते में आए, उसे गिरा दो
कदम कदम पर सबको हरा दो
ये जीत भी कोई जीत है क्या?
सब खेल रहे है
सब को शै मिल रही है
जीतने वाला अगले पल
फिर अपने घुटनों पै चल रहा है
नादान बच्चा गुबारा लेकर कहाँ जाएगा
क्या गुबारे के साथ उड़ पाएगा

हम सब खेलते खेलते थक चुके हैं
खेल भी क्या था, क्या है, क्या होगा
फिर वही शामे-ग़म, फिर वही तनहाइयाँ

क्या कभी साथ मिल कर खेले थे
या अपनी गफ़लत को बरकरार रखने को
जाती तर्जुबात, या वक्त के हवादिस
खोखली रूहों की सर्द आहें
इस ज़िंदगी को कब तक निबाहें
किसी ने साथी बन कर बिसात ही उलट दी
खेल की सूरत को बिल्कुल पलट दी
अब पियादों की मार्फ़त पयाम भी नहीं जाता
वो मालिका अपने खेल में गुमसुम सोई है
मगर खेल खत्म नहीं हुआ है
अभी कुछ साँसें हैं उम्मीद है फ़रियादें हैं
इनका भी इक खेल है प्यारे
जो समझ में नहीं आता

२९ सितंबर २००८

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