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  अर्ज़

ऐ खुदा
अपने इन्साफ़ में
किसी भी लफ़्ज़ का इस्तेमाल न करना
तू जान ही नहीं सकता कभी
तेरी दुनिया में औरत की बिसात क्या है
क्योंकि तू कभी
औरत बनकर जिया ही नहीं दुनिया में

लोग कहते हैं
औरत सरापा इक दर्द है
दहशत की वो आग है
जिसमें वो पैहम जलती रहती है

वो नदामत से ज़र्द है
वो बेदर्द ज़माने से मारी हुई है
वो अपने आप से हारी हुई है
रूह जंज़ीरों में जकड़ी हुई है
कुदरत जंज़ीरों में उखड़ी हुई है

बदन बुझ-बुझ के जलता रहता है
खुद से गोया क्या कहता रहता है

ख़ामोशी की तफ़सीर होती है
इक मुलम्मा इक तस्वीर होती है

ये नाचीज़ हर तहज़ीब का तोहफ़ा है
मगर तहज़ीब का तोहफ़ा है
मगर तहज़ीब क्या है
गुर्बत है क्या, ग़फ़लत है क्या
अपनी रूह की ख़िदमत है क्या

हर सवाल से परीशाँ
हर सवाल पे इक सलीब
और औरत एक मक़तूला
जिसका इन्साफ़ आज तक न हो पाया है
खुदा तू बस इन्साफ़ न करना

ये इन्साफ़ तुझसे हो नहीं सकता
क्योंकि तू इस दुनिया में औरत बनकर जिया ही नहीं
हाँ अगर कभी हो सके
तो ज़ख़्मे-पिन्हा बन कर
औरत के दिल में जी कर देख

३१ अगस्त २००९

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